Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu) 06 Jun 2017 Views : 2435
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आयुर्वेदोक्त आहार संकल्पना

आहार जीवन का एक अभिन्न अंग है। जीवन परंपरा कायम बनाये रखने के लिए भोजन अति आवश्यक है।अगर आदमी को भूख ही नही लगती तो शायद संसार मे क्रिया कलाप ही न होता। इस भूख को संतुष्ट करने के लिए आहार परम आवश्यक है। पर यही आहार अगर विधिवत नही लिया जाता, तो असंख्य व्याधी निर्माण करता है, और विधिवत लिया जाता है तो शरीर का संवरण करता है। आयुर्वेद मे आहार के बारे मे गहरा अध्ययन किया गया है।

आहार कैसा होना चाहिये?

आहार काल कौनसा होना चाहिये?

आहार लेते वक्त सबसे पहले कौनसा रस सेवन करना चाहिए?

आहार मे कौनसे खाद्य पदार्थ साथ मे लेना चाहिये, कौनसे नही?

इन सभी एवं आहार से संबंधीत सभी अन्य प्रश्नो पर आयुर्वेद मे सूक्ष्म एवं गहन विचार विमर्श किया गया है।

आहार घटक :

आधुनिक आहार विज्ञान सभी आहार द्रव्यों को कार्बोहाइड्रेट्स, प्रोटीन और फॅट ऐसे श्रेणीयों मे विभाजीत करता है और प्रत्येक आहारद्रव्य की महत्ता एवं सार्थकता उसकी calorie value और Nutritional value से निर्धारीत करता है। परंतु आयुर्वेद आहार द्रव्यों को उनके गुण, रचना एवं पांचभौतिकता के आधार पर अलग अलग वर्गो मे विभाजीत करता है। आयुर्वेद में प्रत्येक आहारद्रव्य को धातुपोषण एवं दोषों पर होने वाले उनके कार्य को दृष्टी मे रखते हुये महत्व दिया जाता है।

आयुर्वेदोक्त संतुलित आहार -

षष्टिकांशालीमुद्गांश्च सैंधवामलके यवान्।

आन्तरीक्षं पयः सर्पिर्जांगलं मधुं चाभ्यसेत।।

उपरोक्त श्लोक के पढने के बाद ही आपको यह ज्ञात हुआ होगा की आयुर्वेद ने 2000 वर्ष पूर्व ही संतुलित आहार कैसा होना चाहिये ये बताया है। ऐसे आहार मे नित्य सांठी के चावल, शालिचावल, मूंगदाल, सैंधव नमक, आवला, गेहू जौ, बारिश का जमा किया हुआ जल (आंतरिक्ष जल), दूध, घी, मांस (जो मांसाहारी हो उसी के लिये) और मध ये होना ही चाहिये। अगर इस आहार रचना को आधुनिक परिप्रेक्ष्य मे देखे, तो ये जानकर हैरानी होगी की यही बाते आज आधुनिक विज्ञान भी कहता है, जो 2000 वर्ष ई. सा. पूर्व कही गयी है।

शालीषष्टिक - Carbohyadrates

मुद्ग - अर्थात मूंग Proteins

आँवला - आँवले में विटामिन सी प्रचुर मात्रा में होता हैI अल्प मात्रा में कैल्शियम , फॉस्फोरस , कैरोटीन , विटामिन बी काम्प्लेक्स, मैंगनीज , पोटैशियम , ताम्र और लौह तत्त्व भी होते है। परंतु आँवला देसी होना चाहिए। टेनिस बॉल जितना बड़ा हाइब्रिड नही होना चाहिये।देसी आँवला चवन्नी (पुराने २५ पैसे) के आकार जितनी बड़ा होता है।

सैंधव नमक - Mineral & Electrolytes

यव (जौ) - जौ में फाइबर प्रचुर मात्रा में रहता है। जो आंत्र की सामान्य गति बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऊपर से जौ पचने में बहोत हल्का है इसीलिये जिसकी पाचकाग्नि ने जवाब दे दिया हो, ऐसा व्यक्ति भी जौ की रोटी खा सकता है। जौ मे अल्प मात्रा मे molybdenum, manganese, selenium, niacin, Vit. B, & B6, chromium, copper जैसे Trace elements भी रहते है, जिनकी शरीर को भी आवश्कयता रहती है। मेदोरोग (Obesity & Hyperlipidemia ) तथा प्रमेह (diabetes ) मे तो आचार्यों ने यवप्रधान आहार लेने का विधान किया है अर्थात इन व्याधियों मे यव का ही भात और यव की ही रोटी खानी चाहिये। गेहू 3 किलो एवं जौ 2 किलो मिश्रित कर इसके आँटे की रोटी नियमित तौर पर खाने से शरीर स्वस्थ एवं ऊर्जा से परिपूर्ण रहता है।

आन्तरिक्ष- आन्तरिक्ष अर्थात बारिश का शुद्ध पानी इसे आयुर्वेद मे वर्षाजल भी कहा जाता है। पहली 2-3 बारिश का पानी शुद्ध पात्र मे करना शुरू करना चाहिये। बाद मे इसी वर्षाजल का उपयोग खान-पान मे पूर्ण वर्ष करना चाहिये। गुजरात के सौराष्ट्र मे तो आज भी यह परंपरा कायम है। R.O. का पानी पिने से ऐसा संचय किया हुआ वर्षाजल पीना 100% गुना ज्यादा बेहतर है। आन्तरिक्ष जल लघु ( पचने मे हलका), अव्यक्तरस, त्रिदोषघ्न, शरीर का तर्पण करनेवाला, बल्य (बल प्रदान करने वाला), रसायन, पाचन तथा अतीव हितकर (परम पथ्य) होता है। इसीलिये ही आचार्यों ने इसे दैनिक आहार मे स्थान दिया है।

पय : पय अर्थात दूध। दूध अपने आप मे एक परिपूर्ण आहार है यह आप सभी जानते ही हो। आधुनिक मतानुसार दूध मे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, फैट अन्य सभी आवश्यक विटामिन्स तथा मिनरल्स रहते है। परंतु याद रहे खाना खाते वक्त आहार मे दूध के साथ नमक मिला हुआ अन्य पदार्थ नही होना चाहिये, अन्यथा ऐसा विरुद्धहार शरीर मे तरहतरह के व्याधी निर्माण करता है।

सर्पि : सर्पि अर्थात घी। जैसे कोई भी मशीन सुचारू रूप से चलने के लीये उसमे ग्रीस/ऑइल की आवश्यकता रहती है, वैसे ही मनुष्य के शरीर का कारभार सुचारू रूप से चले इसके लिये आहार में घी पर्याप्त मात्रा मे होना आवश्यक है। नियमित रूप से घी का सेवन शरीर धातुओं को बल प्रदान करता है। परंतु यहा एक बात ध्यान रहे की घी मख्खन से घर पर ही बनाया हुआ होना चाहिये, न की डेरी का।

जांगल : जांगल अर्थात जांगल देश मे रहनेवाले पशु-पक्षियों का माँस। जांगल देश अर्थात राजस्थान जैसा प्रदेश। ऐसी जगह विचरण करनेवाले पशु पक्षियों का माँस पचने मे हलका होता है। जो माँस खाते है, जिन्हे मांस सात्म्य है ऐसे लोगों के लिये आचार्यों ने ये विधान किया है। शाकाहारी लोगों के लिये नही। अब रोज के आहार मे माँस होना चाहिये इसका अर्थ अल्प मात्रा मे और आयुर्वेदिक पाक-पद्धती से बनाया हुआ माँस होना चाहिये, न कि मिर्च-मसालों से भरपूर। टीबी जैसे मांसशोष करनेवाले सभी व्याधियों मे नित्य माँस सेवन (अग्निसापेक्ष) करना चाहिये।

मधु : मधु अर्थात शहद। मधु fructose, glucose, maltose एवं sucrose का उत्तम स्रोत है। मधु मे विटामीन बी और सी भी पाये जाते है। दैनिक आहार मे मधुसेवन उर्जास्तर त्वरित बढाने के लिये किया जाता है। वैसे भी गुणसंयोग से मधु को आयुर्वेद मे त्रिदोषशामक कहा गया है। यह आयुर्वेद के संतुलित आहार की संकल्पना है जो सफल तभी होती है, जब अष्टौ आहारविधिविशेषायतन का अनुसरण करके आहार सेवन किया जाये।

अस्तु। शुभम भवतु।

© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगाव 444303, महाराष्ट्र