Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu) 06 Jun 2017 Views : 2009
Vaidya Somraj Kharche, M.D. Ph.D. (Ayu)
06 Jun 2017 Views : 2009

आयुर्वेदीय आहारविधी भाग-1

उष्णं अश्नीयात्

आहारविधी एवं आहारनियमों के बारे मे आयुर्वेद मे जितना सूक्ष्मातिसूक्ष्म विचार किया गया है, शायद ही उतना किसी अन्य शास्त्र मे किया गया हो। आहारविधी के बारे मे आयुर्वेद मे अष्टौआहारविधी विशेषायतान के अंतर्गत विस्तार से चर्चा की गई है, जिनकी एक एक करके हम यहा चर्चा करेंगे।

1) उष्णं अश्नीयात् - अर्थात भोजन गरमागरम और ताजा ही सेवन करना चाहिये। क्यूँ की गरम खाना तुरंत पच जाता है, स्वादिष्ट लगता है और आसानी से पच भी जाता है। अधुनिकों अनुसार गरमागरम खाना निर्जन्तुक भी होता है, मतलब इंफेक्शन की कोई संभावना ही नही।

कितनी सरल बात है? है न?

पर वास्तव मे देखा जाये तो ताजा गरमागरम खाना इतना सरल भी नही जितना हम समझते है। इसका कारण हमारी बदली हुई जीवनशैली और समाज रचना। ब्रिटिशों की जीवनशैली अपनाने के बाद भारत अपने संस्कृति से थोडा दूर चला गया। हम देखते है की आजकल संयुक्त परिवार की जगह विभक्त परिवार ने ली है। ऐसे विभक्त परिवार मे पति पत्नी दोनों नौकरी करते है, जिसकी वजह से घर मे ना पति पत्नी को, ना ही बच्चों को गरम खाना मिलता है। परंतु इसका यह अर्थ नही की खाना बनाकर रखने के बाद, जब खाने की इच्छा हो तब फिर से गरम करे। ऐसी स्थिती मे भोजन अगर ठण्डा है, तो वैसा ही ग्रहण करे पर उसे फिर से गरम न करे। क्योंकि आयुर्वेद एक बार बनाए हुये खाने को पुनः गरम करने का निषेध करता है। इसलिए रोटी, सब्जी या अन्य कोई भी भोजन पदार्थों को एक बार बनाने के बाद फिर से गरम नही करना चाहिए। परंतु प्रायः देखा तो यही कहा जाता है की घर मे खाना बनाके रखा जाता है और खाने के समय पर उसे पुनः गरम किया जाता है। बाहर चाय का ठेला, नाश्ते की रेहडी और होटलों मे भी यही होता है। एक बार आवश्कतानुसार किटली मे (वो भी अल्युमिनीयम की) चाय बना के रखी जाती है और जैसे ही ग्राहक आये उसे फिर से किटली गरम करके गरम चाय परोसा जाता है। बडे बडे होटलों मे भी सबसे ज्यादा खपत वाली सब्जी या उसका गीला मसाला (gravy) ज्यादा मात्रा मे बनाके रखा जाता है और जैसे ही ग्राहक की ऑर्डर आये की तुरंत पुनः गरम करके ग्राहक को परोसा जाता है। ऐसे पुनः गरम किये हुये भोजन को शास्त्र ' विषवत' अर्थात विष के समान कहता है। यहाँ विष का अर्थ 'दूषीविष' होता है और दूषीविष का इंग्लिश में अर्थ होता है Slow Poison। आज की जीवनशैली देखी जाये तो पता चलेगा की 90% भारतीय परिवार इस प्रकार से दूषीविष का सेवन कर रहे है और फिर हॉस्पिटल में आके डॉक्टर से उनकी व्याधी का कारण पूछते है।

आधुनिक आहारशास्त्र अभी तक इस संकल्पना से अनभिज्ञ है। इसलिए मौन है। जब जागेगा तब इसे अपने तथाकथित वैज्ञानिक भाषा में दुनिया के सामने प्रस्तुत करेगा। आयुर्वेद के कुछ ऐसे नियम निश्चितरूप से आधुनिक व्यवहारिक जीवन के साथ मेल नही खाते, पर स्वस्थ रहना है, तो किसी भी हालत मे नियमों का पालन तो करना ही पडेगा। समयाभाव का बहाना शरीर के आगे नही चलता। नियम के अनुसार शरीर को जो चाहिये, जैसा चाहिये वैसा देना ही पडता है अन्यथा यही समयाभाव आपको स्वास्थ्याभाव से परिचित करवाने में हिचकिचाता नही अर्थात गलत परिणाम तो देर सबेर सबको भुगतने ही पडते है।

आजकल कई जेष्ठ सुधीजन 'मैने तो उम्र के 60 साल हुये, पर अभी तक बाहर का नही खाया, फिर मुझे Liver Cirrhosis/pancreatitis/ Fatty Liver/Heart Block etc क्यूँ हुआ?' ऐसा पूछते है। तो ऐसे प्रश्नों का उत्तर उपरोक्त संकल्पनाओं को आधार रखकर जरूर खोजा जा सकता है। आयुर्वेदीय आहारविधी का अगर पूरी बारीकी से पालन किया जाता है, तो विश्वास रखिये समाज स्वस्थता की ओर निश्चित रूप से अग्रसर होगा।

अस्तु। शुभम भवतु।

© श्री स्वामी समर्थ आयुर्वेद सेवा प्रतिष्ठान, खामगाव 444303, महाराष्ट्र